कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे
Submitted by Gajendra on Sun, 08/09/2020 - 18:04

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।
निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय,
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।
जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही,
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही।
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर,
पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर।
जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाहीं,
प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाहीं।