भूख की आग

मेरे दरवाजे पर भूख आयी
देखते ही देखते वह मेरी अंतड़ियों में समा गयी
वह बिल्कुल वैसी ही थी
जैसा मैंने उसके बारे में
अपने बड़ों से सुना था
और उन्होंने अपने पुरखों से
मैं शर्मिंदा था
मेरे पास उसकी आग शांत करने के लिए कुछ न था
पर कुछ तो करना था
सवाल अब उसका नहीं मेरा था
वह मेरे वजूद का हिस्सा बन चुकी थी
उसके साहचर्य की आग तड़पा रही थी मुझे।
मैंने चूल्हा जलाया
पतीले को उस पर चढ़ा
अन्न और पानी तलाशने लगा
मुझे गेहूं के कुछ दाने मिले
उन्होंने मुझसे क्षमा मांगी ली
जुता हुआ खेत उनकी राह देख रहा था
उनके सरोकार मेरी भूख से बड़े थे
फिर भी वे मुझसे शर्मिंदा थे।
मैंने पानी को खोजा
बारजे से दीखने वाले पोखर की तलहटी पर
वह सहमा-सिकुड़ा सा नजर आया
प्रार्थना की मुद्रा में बंधे मेरे हाथ
अंजुरी में बदल गये
यह देख वह कुछ और सिमट गया
उसे पोखर की छाती को फटने से बचाना था
उसका संघर्ष मेरी भूख से भी बड़ा था
फिर भी वह विनम्रता की प्रतिमूर्ति था।
बोझिल कदमों से मैं रसोई में लौट आया
पर तब तक मेरा पतीला
आग में तपते-तपते अंगार में बदल चुका था
जमीन पर घुटने टेक मैं वहीं निढाल हो गया
सचमुच! कुछ भी तो नहीं बदला है
मेरे पुरखों के लिए जितनी बड़ी चुनौती था
चूल्हे की आग सुलगाये रखना
मेरे लिए उससे भी बड़ी चुनौती है
पेट की आग बुझाना।