रामधारी सिंह दिनकर : विद्रोही कवि जो बन गया राष्ट्र कवि

  • जयन्ती 23 सितम्बर पर विशेष 

कुरुक्षेत्र एवं उर्वशी जैसी कालजयी कृतियों के रचयिता रामधारी सिंह दिनकर हिन्दी साहित्य के एक जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं और उनका यश कभी मद्धम नहीं होगा। स्वंत्रता से पहले वह एक विद्रोही कवि के रूप में जाने जाते थे। स्वतंत्रता के बाद उनको राष्ट्र कवि के रूप में पहचान मिली। वे एक ख्यातिलब्ध लेखक, ओजस्वी कवि एवं सफ़ल निबन्धकार थे। उनकी रचनाएं हिन्दी साहित्य की अनमोल धरोहर हैं। द्वापर युग की ऐतिहासिक घटना महाभारत पर आधारित उनके प्रबन्ध काव्य कुरुक्षेत्र को विश्व के 100 सर्वश्रेष्ठ काव्यों में 74वाँ स्थान दिया गया है।

दिनकर जी का जन्म 23 सितम्बर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया गाँव में हुआ था। उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से इतिहास और राजनीति विज्ञान में बीए किया। उन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था। बीए की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक विद्यालय में अध्यापक हो गये। 1934 से 1947 तक बिहार सरकार की सेवा में सब-रजिस्टार और प्रचार विभाग के उपनिदेशक के पद पर कार्य किया। 1950 से 1952 तक मुजफ्फरपुर कॉलेज में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे, भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति के पद पर कार्य किया और उसके बाद भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार बने।

दिनकर को पद्म विभूषण की उपाधि से भी अलंकृत किया गया। संस्कृति के चार अध्याय के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा उर्वशी के लिए भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया। अपनी लेखनी के माध्यम से वह सदा अमर रहेंगे।

1947 में देश स्वाधीन हुआ और वह बिहार विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रध्यापक एवं विभागाध्यक्ष नियुक्त होकर मुज़फ़्फ़रपुर पहुँचे। 1952 में जब भारत की प्रथम संसद का गठन हुआ, तो उन्हें राज्यसभा का सदस्य चुना गया और वह दिल्ली आ गए। दिनकर 12 वर्ष तक संसद सदस्य रहे।  सन् 1964 में उन्हें भागलपुर विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया  लेकिन अगले ही वर्ष भारत सरकार ने उन्हें अपना हिन्दी सलाहकार (1965 से 1971) नियुक्त किया और वह फिर दिल्ली लौट आए। फिर तो ज्वार उमड़ा और रेणुका, हुंकार, रसवंती जैसे और द्वंद्वगीत रचे गए।

रामधारी सिंह दिनकर स्वभाव से सौम्य और मृदुभाषी थे लेकिन जब बात देश के हित-अहित की आती थी तो वह बेबाक टिप्पणी करने से कतराते नहीं थे। राज्यसभा सदस्य के तौर पर उनका चुनाव जवाहर लाला नेहरू ने किया था, इसके बावजूद नेहरू की नीतियों की मुखालफत करने से वे नहीं चूकते थे।

1962 में चीन से हार के बाद संसद में दिनकर ने इस कविता का पाठ किया जिससे तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू का सिर झुक गया था। यह घटना आज भी भारतीय राजनीती के इतिहास की चुनिंदा क्रांतिकारी घटनाओं में से एक है.

रे रोक युद्धिष्ठिर को न यहां जाने दे उनको स्वर्गधीर

फिरा दे हमें गांडीव गदा लौटा दे अर्जुन भीम वीर॥

इसी प्रकार एक बार तो उन्होंने भरी राज्यसभा में नेहरू की ओर इशारा करते हए कहा- "क्या आपने हिन्दी को राष्ट्रभाषा इसलिए बनाया है, ताकि सोलह करोड़ हिन्दीभाषियों को रोज अपशब्द सुनाए जा सकें?" यह सुनकर नेहरू सहित सभा में बैठे सभी लोग सन्न रह गए थे। किस्सा 20 जून 1962 का है। उस दिन दिनकर राज्यसभा में खड़े हुए और हिन्दी के अपमान को लेकर बहुत सख्त स्वर में बोले। उन्होंने कहा था, “देश में जब भी हिन्दी को लेकर कोई बात होती है, तो देश के नेतागण ही नहीं बल्कि कथित बुद्धिजीवी भी हिन्दी वालों को अपशब्द कहे बिना आगे नहीं बढ़ते। पता नहीं इस परिपाटी का आरम्भ किसने किया है, लेकिन मेरा ख्याल है कि इस परिपाटी को प्रेरणा प्रधानमंत्री से मिली है। पता नहीं, तेरह भाषाओं की क्या किस्मत है कि प्रधानमंत्री ने उनके बारे में कभी कुछ नहीं कहा, किन्तु हिन्दी के बारे में उन्होंने आज तक कोई अच्छी बात नहीं कही। मैं और मेरा देश पूछना चाहते हैं कि क्या आपने हिन्दी को राष्ट्रभाषा इसलिए बनाया था ताकि सोलह करोड़ हिन्दीभाषियों को रोज अपशब्द सुनाएं? क्या आपको पता भी है कि इसका दुष्परिणाम कितना भयावह होगा?”

यह सुनकर पूरी सभा सन्न रह गई। ठसाठस भरी सभा में गहरा सन्नाटा छा गया। यह मुर्दा-चुप्पी तोड़ते हुए दिनकर ने फिर कहा, “मैं इस सभा और खासकर प्रधानमंत्री नेहरू से कहना चाहता हूं कि हिन्दी की निन्दा करना बंद किया जाए। हिन्दी की निन्दा से इस देश की आत्मा को गहरी चोट पहंचती है।”

रामधारी सिंह दिनकर का निधन 24 अप्रैल 1974 को मद्रास मे हुआ। उनका महाशून्य में विलीन होना हिन्दी के एक युग का अवसान था। अपनी कालजयी रचनाओं के माध्यम से वे सदैव अमर रहेंगे ।

सुरेश बाबू मिश्र

(साहित्य भूषण से सम्मानित वरिष्ठ साहित्यकार)

English URL: 
Ramdhari Singh Dinkar: The rebel poet who became a national poet