रांगेय राघव

पिया चली फगनौटी कैसी गंध उमंग भरी

पिया चली फगनौटी कैसी गंध उमंग भरी
ढफ पर बजते नये बोल, ज्यों मचकीं नई फरी।

चन्दा की रुपहली ज्योति है रस से भींग गई
कोयल की मदभरी तान है टीसें सींच गई।

दूर-दूर की हवा ला रही हलचल के जो बीज
ममाखियों में भरती गुनगुन करती बड़ी किलोल।

मेरे मन में आती है बस एक बात सुन कन्त
क्यों उठती है खेतों में अब भला सुहागिनि बोल?

सी-सी-सी कर चली बड़ी हचकोले भरके डीठ
पल्ला मैंने सांधा अपना हाय जतन कर नींठ।

ढफ के बोल सुनूँ यों कब तक सारी रैन ढरी
पिया चली फगनौटी अब तो अँखिया नींद भरी।

नास्तिक

तुम सीमाओं के प्रेमी हो, मुझको वही अकथ्य है,
मुझको वह विश्वास चाहिए जो औरों का सत्य है ।
मेरी व्यापक स्वानुभूति में क्या जानो, क्या बात है
सब-कुछ ज्यों कोरा काग़ज़ है, यहाँ कोई न घात है ।