बेबसी

लॉकडाउन में थोड़ी देर के लिए खुली हवा में घूमने के लिए गुप्ता जी मेन रोड पर आ गए। आजकल वाहनों की आवाजाही बंद होने के कारण रोड पर सन्नाटा पसरा हुआ था। गुप्ता जी मुश्किल से एक फर्लांग चल पाए होंगे कि तभी सामने से आ रहे एक नौजवान ने अपनी मोटरसाइकिल बिल्कुल उनके पास आकर रोक दी।
“क्या बात है?” गुप्ता जी ने प्रश्नवाचक निगाहों से उसकी ओर देखते हुए पूछा।

दुश्मन कोरोना से, लड़ना ही लड़ना है

मर्यादा का पालन, करना ही करना है।
दुश्मन कोरोना से, लड़ना ही लड़ना है।

है ताप बहुत तीखा, कोरोना का जग में।
जीवन मृत्यु के पल, बिखरे हैं पग-पग में।
इक दिन कोरोना को, थकना ही थकना है।
दुश्मन कोरोना से...

कोई कितना रोके, राहों को बढ़ने दो।
हर काम जरूरी हैं, होने दो, चलने दो।
आगे-आगे-आगे, चलना ही चलना है।
दुश्मन कोरोना से...

सबको मालूम यहां, है सबको विदित यहां।
सबसे ज्यादा क्षमता, मानव में निहित यहां।
कोरोना को निश्चित, डरना ही डरना है।
दुश्मन कोरोना से...

बड़े भाईसाहब

मेरे भाई साहब मुझसे पाँच साल बड़े थे, लेकिन केवल तीन दरजे आगे। उन्होंने भी उसी उम्र में पढ़ना शुरू किया था जब मैंने शुरू किया था; लेकिन तालीम जैसे महत्व के मामले में वह जल्दबाजी से काम लेना पसंद न करते थे। इस भावना की बुनियाद खूब मज़बूत डालना चाहते थे जिस पर आलीशान महल बन सके। एक साल का काम दो साल में करते थे। कभी-कभी तीन साल भी लग जाते थे। बुनियाद ही पुख्ता न हो, तो मकान कैसे पायेदार बने!
मैं छोटा था, वह बड़े थे। मेरी उम्र नौ साल की थी, वह चौदह साल ‍के थे। उन्हें मेरी तंबीह और निगरानी का पूरा जन्मसिद्ध अधिकार था। और मेरी शालीनता इसी में थी कि उनके हुक्म को क़ानून समझूँ।

घासवाली

मुलिया हरी-हरी घास का गट्ठा लेकर आयी, तो उसका गेहुआँ रंग कुछ तमतमाया हुआ था और बड़ी-बड़ी मद-भरी आँखों में शंका समाई हुई थी। महावीर ने उसका तमतमाया हुआ चेहरा देखकर पूछा- क्या है मुलिया, आज कैसा जी है?
मुलिया ने कुछ जवाब न दिया उसकी आँखें डबडबा गयीं! महावीर ने समीप आकर पूछा- क्या हुआ है, बताती क्यों नहीं ? किसी ने कुछ कहा है? अम्माँ ने डाँटा है? क्यों इतनी उदास है?

मुलिया ने सिसककर कहा- क़ुछ नहीं, हुआ क्या है, अच्छी तो हूँ?

महावीर ने मुलिया को सिर से पाँव तक देखकर कहा- चुपचाप रोयेगी, बतायेगी नहीं ?

मुलिया ने बात टालकर कहा- कोई बात भी हो, क्या बताऊँ?

नमक का दरोगा

जब नमक का नया विभाग बना और ईश्वरप्रदत्त वस्तु के व्यवहार करने का निषेध हो गया तो लोग चोरी-छिपे इसका व्यापार करने लगे। अनेक प्रकार के छल-प्रपंचों का सूत्रपात हुआ, कोई घूस से काम निकालता था, कोई चालाकी से। अधिकारियों के पौ-बारह थे। पटवारीगिरी का सर्वसम्मानित पद छोड-छोडकर लोग इस विभाग की बरकंदाजी करते थे। इसके दारोगा पद के लिए तो वकीलों का भी जी ललचाता था।
यह वह समय था जब अंग्रेजी शिक्षा और ईसाई मत को लोग एक ही वस्तु समझते थे। फारसी का प्राबल्य था। प्रेम की कथाएँ और श्रृंगार रस के काव्य पढकर फारसीदाँ लोग सर्वोच्च पदों पर नियुक्त हो जाया करते थे।

दो बैलों की कथा

जानवरों में गधा सबसे ज्यादा बुद्धिमान समझा जाता है। हम जब किसी आदमी को पहले दर्जे का बेवकूफ कहना चाहते हैं, तो उसे गधा कहते हैं। गधा सचमुच बेवकूफ है या उसके सीधेपन, उसकी निरापद सहिष्णुता ने उसे यह पदवी दे दी है, इसका निश्चय नहीं किया जा सकता। गायें सींग मारती हैं, ब्याही हुई गाय तो अनायास ही सिंहनी का रूप धारण कर लेती है.

पिया चली फगनौटी कैसी गंध उमंग भरी

पिया चली फगनौटी कैसी गंध उमंग भरी
ढफ पर बजते नये बोल, ज्यों मचकीं नई फरी।

चन्दा की रुपहली ज्योति है रस से भींग गई
कोयल की मदभरी तान है टीसें सींच गई।

दूर-दूर की हवा ला रही हलचल के जो बीज
ममाखियों में भरती गुनगुन करती बड़ी किलोल।

मेरे मन में आती है बस एक बात सुन कन्त
क्यों उठती है खेतों में अब भला सुहागिनि बोल?

सी-सी-सी कर चली बड़ी हचकोले भरके डीठ
पल्ला मैंने सांधा अपना हाय जतन कर नींठ।

ढफ के बोल सुनूँ यों कब तक सारी रैन ढरी
पिया चली फगनौटी अब तो अँखिया नींद भरी।

भूख की आग

मेरे दरवाजे पर भूख आयी
देखते ही देखते वह मेरी अंतड़ियों में समा गयी
वह बिल्कुल वैसी ही थी
जैसा मैंने उसके बारे में
अपने बड़ों से सुना था
और उन्होंने अपने पुरखों से
मैं शर्मिंदा था
मेरे पास उसकी आग शांत करने के लिए कुछ न था
पर कुछ तो करना था
सवाल अब उसका नहीं मेरा था
वह मेरे वजूद का हिस्सा बन चुकी थी
उसके साहचर्य की आग तड़पा रही थी मुझे।

शिल्पकार

दरवाजे की दरार से छिटक
कमरे के फर्श पर पसर गया
धूप का एक धब्बा
मनुष्य की जिजीविषा-सा।

दरवाजे पर दस्तक देती हवा
शिल्पकार के छेनी-हथौड़े की
सधी चोट-सी।

धूप और हवा-
दोनों शिल्पकार हैं।

उसने कहा था

बड़े-बडे़ शहरों के इक्के-गाड़ी वालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बू कार्ट वालों की बोली का मरहम लगाएं। जबकि बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ को चाबुक से धुनते हुए इक्के वाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट यौन-संबंध स्थिर करते हैं, कभी उसके गुप्त गुह्य अंगों से डॉक्टर को लजाने वाला परिचय दिखाते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आंखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अंगुलियों के पोरों की चींथकर अपने ही को सताया हुआ बताते हैं और संसारभर की ग्लानि और क्षोभ के अवतार बने नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उ

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