गजेन्द्र त्रिपाठी की कविता- शिल्पकार

शिल्पकार

दरवाजे की दरार से छिटक
कमरे के फर्श पर पसर गया
धूप का एक धब्बा
मनुष्य की जिजीविषा-सा।

दरवाजे पर दस्तक देती हवा
शिल्पकार के छेनी-हथौड़े की
सधी चोट-सी।

धूप और हवा-
दोनों शिल्पकार हैं।