रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविता निष्फल कामना

निष्फल कामना

सूरज डूब रहा है
वन में अंधकार है, आकाश में प्रकाश।
संध्या आँखें झुकाये हुए
धीरे-धीरे दिन के पीछे चल रही है।
बिछुड़ने के विषाद से श्रांत सांध्य बातास
कौन जाने बह भी रहा है की नहीं।
मैं अपने दोनों हाथों में तुम्हारे हाथ लेकर
प्यासे नयनों से तुम्हारी आँखों के भीतर झाँक रहा हूँ।