शरत चंद्र चट्टोपाध्याय

अनुपमा का प्रेम

ग्यारह वर्ष की उम्र से ही अनुपमा उपन्यास पढ़-पढ़कर मस्तिष्क को एकदम बिगाड़ बैठी थी। वह समझती थी, मनुष्य के हृदय में जितना प्रेम, जितनी माधुरी, जितनी शोभा, जितना सौंदर्य, जितनी तृष्णा है,सब छान-बीनकर, साफ कर उसने अपने मस्तिष्क के भीतर जमा कर रखी है। मनुष्य-स्वभाव, मनुष्य-चरित्र, उसका नख दर्पण हो गया है। संसार में उसके लिए सीखने योग्य वस्तु और कोई नहीं है, सब कुछ जान चुकी है, सब कुछ सीख चुकी है। सतीत्व की ज्योति को वह जिस प्रकार देख सकती है, प्रणय की महिमा को वह जिस प्रकार समझ सकती है,संसार में और भी कोई उस-जैसा समझदार नहीं है, अनुपमा इस बात पर किसी तरह भी विश्वास नहीं कर पाती। अनु ने सोचा-“वह