गजेन्द्र त्रिपाठी

भूख की आग

मेरे दरवाजे पर भूख आयी
देखते ही देखते वह मेरी अंतड़ियों में समा गयी
वह बिल्कुल वैसी ही थी
जैसा मैंने उसके बारे में
अपने बड़ों से सुना था
और उन्होंने अपने पुरखों से
मैं शर्मिंदा था
मेरे पास उसकी आग शांत करने के लिए कुछ न था
पर कुछ तो करना था
सवाल अब उसका नहीं मेरा था
वह मेरे वजूद का हिस्सा बन चुकी थी
उसके साहचर्य की आग तड़पा रही थी मुझे।

शिल्पकार

दरवाजे की दरार से छिटक
कमरे के फर्श पर पसर गया
धूप का एक धब्बा
मनुष्य की जिजीविषा-सा।

दरवाजे पर दस्तक देती हवा
शिल्पकार के छेनी-हथौड़े की
सधी चोट-सी।

धूप और हवा-
दोनों शिल्पकार हैं।