बनैला संपादक

आया था वह नया संपादक
दिल्ली से वाया लखनऊ-
कार से
उसके आने से पहले ही पहुंच चुकी थी
उसके किस्सों की फेहरिस्त
और वह लिस्ट भी कि
किस-किस की बिगाड़ेगा वह
ताकि फैल सके आतंक
और स्थापित हो सके एकछत्र साम्राज्य।
मालिकों के बड़े चंपुओं की खुर्दबीन ने
खोज निकाला था उसे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से
हालांकि वह था प्रिंट मीडिया की ही देन
जैसा कि लोग मानते हैं
और कुछ तो देख भी चुके थे
कुछेक अखबारों के दफ्तरों में
इधर से उधर, उधर से इधर
विचरते हुए यूं ही
किसी बनैले की तरह
बिना वजह यहां-वहां सींग घुसेड़ते हुए।
नए जमाने का संपादक होना
यूं भी कोई आसान नहीं होता
साधना पड़ता है न जाने किस-किस को।
जैसा कि मिथकों में भी वर्णित है-
सबसे खतरनाक होते हैं
अपने ही सहोदर-विरादर
और यदि वे हों पत्रकार
बाबा रे बाबा!
सबसे पहले कसने होंगे
इनके ही नट-बोल्ट
पर बदलने को पहली प्राथमिकता
खतरा नहीं उठा सकता
नए जमाने का संपादक
यहां आने के लिए करने पड़े थे
कितने ही और कैसे-कैसे दंद-फंद
और अब नहीं दे सकता
किसी को ऐसा करने का एक भी मौका।
शुरू हो गया था खेल और
मदारी की भूमिका में आ गया था संपादक
जुट गए थे कई जमूरे
कुछ अपने आप, दो-एक आयातित।
यूं भी कच्चों के पास
नहीं होती चापलूसों की कमी,
चापलूस इसलिए भी करता है चापलूसी
क्योंकि वह समझता है आपको कमजोर। (टॉलस्टाय से क्षमा प्रार्थना सहित)
यूं भी सबसे आसान होता है
दूसरों में या कि दूसरों की गलतियां ढूंढ निकालना
और यदि वह हो अखबार जैसा
तेजी से लिखा गया इतिहास
समझो बल्ले-बल्ले!
दाड़ी वाले ने चश्मे को झबरे बालों पर चढ़ाते हुए
टेक दिए थे घुटने
शून्य में घूमा अदृश्य हाथ
अभय की मुद्रा में-
निश्चिंत भव
ऐसे ही प्यादे चाहिए हमें
बिना रीढ़ के
होठों की कोर से पीक बहाते।
जिनकी पीठ पर चिनी गई थी एक-एक ईंट
अचानक घोषित कर दिए गए बेकाम के
घूरे पर फेंक दिए जाने लायक भी नहीं
वह जो कल तक था मातहत
नए दौर में कर रहा था
उनके कामकाज की स्क्रीनिंग।
चैम्बर में होता रहा विष-वमन अब
संपादकीय कक्ष तक पहुंच चुका था
बर्दाश्त नहीं कर सके और
छोड़ गए तीन-चार
स्वेच्छा से अपना पद-वद
छोड़ते भी कैसे न
आखिर मेहनती थे और
पढ़ने-लिखने वाले भी
असहज पा रहे थे खुद को नए दौर में
आप कह सकते हैं-
उड़ नहीं पा रहे थे हवाओं के खिलाफ।
और जो नहीं गए
बैठ गए लंबी-लंबी छुट्टियां लेकर
जो खत्म नहीं हुईं फिर कभी
उस संपादक की लिप्सा और अहंकार की तरह।
स्तब्ध थे सब और
रो रहे थे खून के आंसू
कलम की जगह उस्तरा लेकर आए
संपादक के राज में ।
पर विस्मित थे दूसरे अखबार वाले
उनका काम कर रहा था
टक्कर वाले अखबार का संपादक
अपनी ही सेना का बन संहारक।
उस्तरा पकड़ा दिए जाने भर से कोई बंदर
नहीं बन जाता हज्जाम
न ही यूं ही बना दिए जाने से
बन जाता है कोई संपादक।
भौकाल मारना हालांकि हर किसी के
वश की बात नहींं
पर पढ़ना-लिखना आना भी
इतना आसान नहीं
और संपादक होने की पहली शर्त
आज भी यही है-
पढ़ने-लिखने वाला और दृष्टा होना।
इस बात को नहीं समझ पाया
वह नए दौर का संपादक।
जैसा कि पहले भी बता चुका हूं
वह अकिंचन तो दरअसल
था ही नहीं संपादक
कच्ची मिट्टी का लोंदा था
जिसे संपादकनुमा तराश
चुपड़-चमका कर
उठा लाये थे कुछ मैनेजर
और उस संपादक ने भी
जानबूझकर या अनजाने में
उनको ही सौंप दी थी अपनी रास।