कविता-गीत

ओजोन बिना मानव जीवन

पराबैंगनी किरणों से, ये धरती आज बचानी है ।

क्या ओजोन परत है ये, जन- जन को राह दिखानी है ।।

 

   कवच बचेगा धरती का, ऐसे उपाय अपनायें हम ।

   सभी सुरक्षित काम करें, हर मानव को समझायें हम ।।

   वृक्षों की हरियाली से, ये धरती हमें सजानी है ।।

   पराबैंगनी किरणों से...

 

ओजोन बिना मानव का, जीवन मुश्किल हो जायेगा ।

गर ओजोन छिद्र बढ़ेगा,  कोई भी ना बच पायेगा ।।

कैसे हम बच पायेंगे, ये बात आज समझानी है ।।

 

   जलवायु बदलाव गति को, मिलकर करें नियंत्रण हम सब ।

   मांट्रियल समझौते का, पालन सभी करेंगे हम सब ।

ये कोरोना हारेगा

धर्मयुद्ध के कर्मक्षेत्र से, ये कोरोना भागेगा।
आज नहीं तो कल निश्चय ही, ये कोरोना हारेगा।
संवेदन से हीन शक्ति से, ये संघर्ष हमारा है।
हम तलाश करके मानेंगे, जिसने दिया सहारा है।
हांफ चुके सब बहुत दिनों अब, ये कोरोना हांफेगा।
आज नहीं तो...
सारा विश्व परेशां इससे, अजब अनोखा दुश्मन है।
नतमस्तक मानव दीखा चुप, चुप दीखा हर आंगन है।
काफी नाच नचाया इक दिन, ये कोरोना नाचेगा।
आज नहीं तो...
वैज्ञानिक शक्ति का इसको, कुछ अंदाज नहीं मित्रों।
उछलकूद सब बंद करेंगे, हर आवाज हमीं मित्रों।

दुश्मन कोरोना से, लड़ना ही लड़ना है

मर्यादा का पालन, करना ही करना है।
दुश्मन कोरोना से, लड़ना ही लड़ना है।

है ताप बहुत तीखा, कोरोना का जग में।
जीवन मृत्यु के पल, बिखरे हैं पग-पग में।
इक दिन कोरोना को, थकना ही थकना है।
दुश्मन कोरोना से...

कोई कितना रोके, राहों को बढ़ने दो।
हर काम जरूरी हैं, होने दो, चलने दो।
आगे-आगे-आगे, चलना ही चलना है।
दुश्मन कोरोना से...

सबको मालूम यहां, है सबको विदित यहां।
सबसे ज्यादा क्षमता, मानव में निहित यहां।
कोरोना को निश्चित, डरना ही डरना है।
दुश्मन कोरोना से...

पिया चली फगनौटी कैसी गंध उमंग भरी

पिया चली फगनौटी कैसी गंध उमंग भरी
ढफ पर बजते नये बोल, ज्यों मचकीं नई फरी।

चन्दा की रुपहली ज्योति है रस से भींग गई
कोयल की मदभरी तान है टीसें सींच गई।

दूर-दूर की हवा ला रही हलचल के जो बीज
ममाखियों में भरती गुनगुन करती बड़ी किलोल।

मेरे मन में आती है बस एक बात सुन कन्त
क्यों उठती है खेतों में अब भला सुहागिनि बोल?

सी-सी-सी कर चली बड़ी हचकोले भरके डीठ
पल्ला मैंने सांधा अपना हाय जतन कर नींठ।

ढफ के बोल सुनूँ यों कब तक सारी रैन ढरी
पिया चली फगनौटी अब तो अँखिया नींद भरी।

भूख की आग

मेरे दरवाजे पर भूख आयी
देखते ही देखते वह मेरी अंतड़ियों में समा गयी
वह बिल्कुल वैसी ही थी
जैसा मैंने उसके बारे में
अपने बड़ों से सुना था
और उन्होंने अपने पुरखों से
मैं शर्मिंदा था
मेरे पास उसकी आग शांत करने के लिए कुछ न था
पर कुछ तो करना था
सवाल अब उसका नहीं मेरा था
वह मेरे वजूद का हिस्सा बन चुकी थी
उसके साहचर्य की आग तड़पा रही थी मुझे।

शिल्पकार

दरवाजे की दरार से छिटक
कमरे के फर्श पर पसर गया
धूप का एक धब्बा
मनुष्य की जिजीविषा-सा।

दरवाजे पर दस्तक देती हवा
शिल्पकार के छेनी-हथौड़े की
सधी चोट-सी।

धूप और हवा-
दोनों शिल्पकार हैं।

मेरा नया बचपन

बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी।।

चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?

ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी।।

किए दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया।।

रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।
बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे।।

वीरों का कैसा हो वसंत

आ रही हिमालय से पुकार
है उदधि गरजता बार बार
प्राची पश्चिम भू नभ अपार;
सब पूछ रहें हैं दिग-दिगन्त
वीरों का कैसा हो वसंत

फूली सरसों ने दिया रंग
मधु लेकर आ पहुंचा अनंग
वधु वसुधा पुलकित अंग अंग;
है वीर देश में किन्तु कंत
वीरों का कैसा हो वसंत

भर रही कोकिला इधर तान
मारू बाजे पर उधर गान
है रंग और रण का विधान;
मिलने को आए आदि अंत
वीरों का कैसा हो वसंत

गलबाहें हों या कृपाण
चलचितवन हो या धनुषबाण
हो रसविलास या दलितत्राण;
अब यही समस्या है दुरंत
वीरों का कैसा हो वसंत

स्वदेश के प्रति

आ, स्वतंत्र प्यारे स्वदेश आ,
स्वागत करती हूँ तेरा।
तुझे देखकर आज हो रहा,
दूना प्रमुदित मन मेरा॥

आ, उस बालक के समान
जो है गुरुता का अधिकारी।
आ, उस युवक-वीर सा जिसको
विपदाएं ही हैं प्यारी॥

आ, उस सेवक के समान तू
विनय-शील अनुगामी सा।
अथवा आ तू युद्ध-क्षेत्र में
कीर्ति-ध्वजा का स्वामी सा॥

आशा की सूखी लतिकाएं
तुझको पा, फिर लहराईं।
अत्याचारी की कृतियों को
निर्भयता से दरसाईं॥

हिमाद्रि तुंग शृंग से

हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती
'अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो!'

असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी
सपूत मातृभूमि के- रुको न शूर साहसी!
अराति सैन्य सिंधु में, सुवाड़वाग्नि से जलो,
प्रवीर हो जयी बनो- बढ़े चलो, बढ़े चलो!

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