रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविता

वधू

“बेला हो गई है, चल पानी भर लायें।”
मानो कोई दूर पर पहचाने स्वर में
पुकार रहा है-
कहाँ है वह छाया सखी,
कहाँ है वह जल,
कहाँ है वह पक्का घाट,
कहाँ है वह अश्वत्थ-तल!
घर के इक कोने में
मैं अकेली और अनमनी बैठी थी,
मानो तभी किसी ने पुकारा- 'चल पानी भर लायें

निष्फल कामना

सूरज डूब रहा है
वन में अंधकार है, आकाश में प्रकाश।
संध्या आँखें झुकाये हुए
धीरे-धीरे दिन के पीछे चल रही है।
बिछुड़ने के विषाद से श्रांत सांध्य बातास
कौन जाने बह भी रहा है की नहीं।
मैं अपने दोनों हाथों में तुम्हारे हाथ लेकर
प्यासे नयनों से तुम्हारी आँखों के भीतर झाँक रहा हूँ।