कहानी

आइसोलेट

रीमा की नजरें बार-बार घड़ी पर जा टिकतीं। शेखर को अस्पताल गए हुए बीस घंटे से ज्यादा हो गए थे। अस्पताल से फोन आने पर डॉक्टर शेखर सुबह चार बजे ही अस्पताल चले गए थे। अब रात के नौ बज गए थे मगर शेखर का अभी तक कोई अता-पता नहीं था।
रीमा ने दो-तीन बार फोन भी किया था मगर शेखर का फोन नहीं उठा था। पांच-छह दिन से कोरोना के कारण शेखर की व्यस्तता बहुत बढ़ गई थी।
रीमा की निगाहें दरवाजे पर ही टिकी हुई थीं। जरा-सी आहट होती तो उसे लगता शेखर आ गए। वह बार-बार उठकर देखती।

अनुपमा का प्रेम

ग्यारह वर्ष की उम्र से ही अनुपमा उपन्यास पढ़-पढ़कर मस्तिष्क को एकदम बिगाड़ बैठी थी। वह समझती थी, मनुष्य के हृदय में जितना प्रेम, जितनी माधुरी, जितनी शोभा, जितना सौंदर्य, जितनी तृष्णा है,सब छान-बीनकर, साफ कर उसने अपने मस्तिष्क के भीतर जमा कर रखी है। मनुष्य-स्वभाव, मनुष्य-चरित्र, उसका नख दर्पण हो गया है। संसार में उसके लिए सीखने योग्य वस्तु और कोई नहीं है, सब कुछ जान चुकी है, सब कुछ सीख चुकी है। सतीत्व की ज्योति को वह जिस प्रकार देख सकती है, प्रणय की महिमा को वह जिस प्रकार समझ सकती है,संसार में और भी कोई उस-जैसा समझदार नहीं है, अनुपमा इस बात पर किसी तरह भी विश्वास नहीं कर पाती। अनु ने सोचा-“वह

बेबसी

लॉकडाउन में थोड़ी देर के लिए खुली हवा में घूमने के लिए गुप्ता जी मेन रोड पर आ गए। आजकल वाहनों की आवाजाही बंद होने के कारण रोड पर सन्नाटा पसरा हुआ था। गुप्ता जी मुश्किल से एक फर्लांग चल पाए होंगे कि तभी सामने से आ रहे एक नौजवान ने अपनी मोटरसाइकिल बिल्कुल उनके पास आकर रोक दी।
“क्या बात है?” गुप्ता जी ने प्रश्नवाचक निगाहों से उसकी ओर देखते हुए पूछा।

बड़े भाईसाहब

मेरे भाई साहब मुझसे पाँच साल बड़े थे, लेकिन केवल तीन दरजे आगे। उन्होंने भी उसी उम्र में पढ़ना शुरू किया था जब मैंने शुरू किया था; लेकिन तालीम जैसे महत्व के मामले में वह जल्दबाजी से काम लेना पसंद न करते थे। इस भावना की बुनियाद खूब मज़बूत डालना चाहते थे जिस पर आलीशान महल बन सके। एक साल का काम दो साल में करते थे। कभी-कभी तीन साल भी लग जाते थे। बुनियाद ही पुख्ता न हो, तो मकान कैसे पायेदार बने!
मैं छोटा था, वह बड़े थे। मेरी उम्र नौ साल की थी, वह चौदह साल ‍के थे। उन्हें मेरी तंबीह और निगरानी का पूरा जन्मसिद्ध अधिकार था। और मेरी शालीनता इसी में थी कि उनके हुक्म को क़ानून समझूँ।

घासवाली

मुलिया हरी-हरी घास का गट्ठा लेकर आयी, तो उसका गेहुआँ रंग कुछ तमतमाया हुआ था और बड़ी-बड़ी मद-भरी आँखों में शंका समाई हुई थी। महावीर ने उसका तमतमाया हुआ चेहरा देखकर पूछा- क्या है मुलिया, आज कैसा जी है?
मुलिया ने कुछ जवाब न दिया उसकी आँखें डबडबा गयीं! महावीर ने समीप आकर पूछा- क्या हुआ है, बताती क्यों नहीं ? किसी ने कुछ कहा है? अम्माँ ने डाँटा है? क्यों इतनी उदास है?

मुलिया ने सिसककर कहा- क़ुछ नहीं, हुआ क्या है, अच्छी तो हूँ?

महावीर ने मुलिया को सिर से पाँव तक देखकर कहा- चुपचाप रोयेगी, बतायेगी नहीं ?

मुलिया ने बात टालकर कहा- कोई बात भी हो, क्या बताऊँ?

नमक का दरोगा

जब नमक का नया विभाग बना और ईश्वरप्रदत्त वस्तु के व्यवहार करने का निषेध हो गया तो लोग चोरी-छिपे इसका व्यापार करने लगे। अनेक प्रकार के छल-प्रपंचों का सूत्रपात हुआ, कोई घूस से काम निकालता था, कोई चालाकी से। अधिकारियों के पौ-बारह थे। पटवारीगिरी का सर्वसम्मानित पद छोड-छोडकर लोग इस विभाग की बरकंदाजी करते थे। इसके दारोगा पद के लिए तो वकीलों का भी जी ललचाता था।
यह वह समय था जब अंग्रेजी शिक्षा और ईसाई मत को लोग एक ही वस्तु समझते थे। फारसी का प्राबल्य था। प्रेम की कथाएँ और श्रृंगार रस के काव्य पढकर फारसीदाँ लोग सर्वोच्च पदों पर नियुक्त हो जाया करते थे।

दो बैलों की कथा

जानवरों में गधा सबसे ज्यादा बुद्धिमान समझा जाता है। हम जब किसी आदमी को पहले दर्जे का बेवकूफ कहना चाहते हैं, तो उसे गधा कहते हैं। गधा सचमुच बेवकूफ है या उसके सीधेपन, उसकी निरापद सहिष्णुता ने उसे यह पदवी दे दी है, इसका निश्चय नहीं किया जा सकता। गायें सींग मारती हैं, ब्याही हुई गाय तो अनायास ही सिंहनी का रूप धारण कर लेती है.

उसने कहा था

बड़े-बडे़ शहरों के इक्के-गाड़ी वालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बू कार्ट वालों की बोली का मरहम लगाएं। जबकि बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ को चाबुक से धुनते हुए इक्के वाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट यौन-संबंध स्थिर करते हैं, कभी उसके गुप्त गुह्य अंगों से डॉक्टर को लजाने वाला परिचय दिखाते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आंखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अंगुलियों के पोरों की चींथकर अपने ही को सताया हुआ बताते हैं और संसारभर की ग्लानि और क्षोभ के अवतार बने नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उ

ठाकुर का कुआं

जोखू ने लोटा मुंह से लगाया तो पानी में सख़्त बदबू आई। गंगी से बोला,‘‘यह कैसा पानी है? मारे बास के पिया नहीं जाता। गला सूखा जा रहा है और तू सड़ा पानी पिलाए देती है!’’
गंगी प्रतिदिन शाम पानी भर लिया करती थी। कुआं दूर था, बार-बार जाना मुश्क़िल था। कल वह पानी लाई, तो उसमें बू बिल्कुल न थी, आज पानी में बदबू कैसी! लोटा नाक से लगाया, तो सचमुच बदबू थी। ज़रूर कोई जानवर कुएं में गिरकर मर गया होगा, मगर दूसरा पानी आवे कहां से?
ठाकुर के कुएं पर कौन चढ़ने देगा? दूर से लोग डांट बताएंग। साहू का कुआं गांव के उस सिरे पर है परंतु वहां भी कौन पानी भरने देगा? कोई तीसरा कुआं गांव में है नहीं।

पंच परमेश्वर

जुम्मन शेख और अलगू चौधरी में गाढ़ी मित्रता थी। साझे में खेती होती थी। कुछ लेन-देन में भी साझा था। एक को दूसरे पर अटल विश्वास था। जुम्मन जब हज करने गये थे, तब अपना घर अलगू को सौंप गये थे, और अलगू जब कभी बाहर जाते, तो जुम्मन पर अपना घर छोड़ देते थे। उनमें न खान-पान का व्यवहार था, न धर्म का नाता; केवल विचार मिलते थे। मित्रता का मूलमंत्र भी यही है।

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