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नास्तिक

तुम सीमाओं के प्रेमी हो, मुझको वही अकथ्य है,
मुझको वह विश्वास चाहिए जो औरों का सत्य है ।
मेरी व्यापक स्वानुभूति में क्या जानो, क्या बात है
सब-कुछ ज्यों कोरा काग़ज़ है, यहाँ कोई न घात है ।

सबसे खतरनाक होता है

मेहनत की लूट सबसे खतरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं होती
गद्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे खतरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़े जाना, बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना, बुरा तो है
पर सबसे खतरनाक नहीं होता
कपट के शोर में
सही होते हुए भी दब जाना, बुरा तो है
जुगनुओं की लौ में पढ़ना, बुरा तो है
मुट्ठियां भींचकर बस वक्त निकाल लेना, बुरा तो है
सबसे खतरनाक नहीं होता
सबसे खतरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर जाना

तोप

कम्पनी बाग़ के मुहाने पर
धर रखी गई है यह 1857 की तोप
इसकी होती है बड़ी सम्हाल
विरासत में मिले
कम्पनी बाग की तरह
साल में चमकायी जाती है दो बार
सुबह-शाम कम्पनी बाग में आते हैं बहुत से सैलानी
उन्हें बताती है यह तोप
कि मैं बड़ी जबर
उड़ा दिये थे मैंने
अच्छे-अच्छे सूरमाओं के छज्जे
अपने ज़माने में
अब तो बहरहाल
छोटे लड़कों की घुड़सवारी से अगर यह फारिग हो
तो उसके ऊपर बैठकर
चिड़ियाँ ही अक्सर करती हैं गपशप
कभी-कभी शैतानी में वे इसके भीतर भी घुस जाती हैं
ख़ासकर गौरैयें

कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।

बनैला संपादक

आया था वह नया संपादक
दिल्ली से वाया लखनऊ-
कार से
उसके आने से पहले ही पहुंच चुकी थी
उसके किस्सों की फेहरिस्त
और वह लिस्ट भी कि
किस-किस की बिगाड़ेगा वह
ताकि फैल सके आतंक
और स्थापित हो सके एकछत्र साम्राज्य।

पूस की रात

हिंदी के सर्वाधिक लोकप्रिय कहानीकार-उपन्यासकार प्रेमचंद की 31 जुलाई को जयंती है। हिंदी साहित्य में उनका क्या स्थान है इसे इसी से समझा जा सकता है कि हिंदी कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में 1918 से 1936 तक के कालखंड को “प्रेमचंद युग” कहा जाता है। प्रस्तुत है किसान के श्रम, संघर्ष और दीनता का मर्मस्पर्शी चित्रण करती उनकी कालजयी कहानी- पूस की रात।
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मंत्र

हिंदी के सर्वाधिक लोकप्रिय कहानीकार-उपन्यासकार प्रेमचंद की 31 जुलाई को जयंती है। हिंदी साहित्य में उनका क्या स्थान है इसे इसी से समझा जा सकता है कि हिंदी कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में 1918 से 1936 तक के कालखंड को “प्रेमचंद युग” कहा जाता है। प्रस्तुत है मानवीय संवेदनाओं को अभिव्यक्त करती उनकी मर्मस्पर्शी कालजयी कहानी- मंत्र।
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तुलसी जयंती पर तुलसी चालीसा*

तुलसी चालीसा*  तू कहते हैं राम को,ल से लक्ष्मण जान। सी का मतलब मातु सिय, दास बसे हनुमान।। जय तुलसी हिंदी रखवारी। राम भगत संतन सुखकारी।।1 सावन सुदि सातम शनिवारा। तुलसी बाल्मीक अवतारा।।2

तुलसी चालीसा*
तू कहते हैं राम को,ल से लक्ष्मण जान।
सी का मतलब मातु सिय, दास बसे हनुमान।।
जय तुलसी हिंदी रखवारी।
राम भगत संतन सुखकारी।।1
सावन सुदि सातम शनिवारा।
तुलसी बाल्मीक अवतारा।।2
चित्रकूट राजापुर ग्रामा।
उत्तर भूमी पावन धामा।।3
पिता आतम माता हुलसी।
मूल नखत्तर जन्में तुलसी।।4
पांच बरस सा बालक प्यारा।
जनम लेत ही राम उचारा।।5
‌देह सुहावन मुख में दांता।
परिजन सारा देखत कांपा।।6
बालकाल में भये अनाथा।
चुनियाबाइ दयो तब साथा।।7
मांगत खावत बने भिखारी।
सरस्वती की किरपा भारी।।8

कफन

झोपड़े के द्वार पर बाप और बेटा दोनों एक बुझे हुए अलाव के सामने चुपचाप बैठे हुए हैं और अन्दर बेटे की जवान बीबी बुधिया प्रसव-वेदना में पछाड़ खा रही थी। रह-रहकर उसके मुँह से ऐसी दिल हिला देने वाली आवाज़ निकलती थी कि दोनों कलेजा थाम लेते थे। जाड़ों की रात थी, प्रकृति सन्नाटे में डूबी हुई, सारा गाँव अन्धकार में लय हो गया था।
घीसू ने कहा- मालूम होता है, बचेगी नहीं। सारा दिन दौड़ते हो गया, जा देख तो आ।
माधव चिढक़र बोला- मरना ही तो है जल्दी मर क्यों नहीं जाती? देखकर क्या करूँ?
‘तू बड़ा बेदर्द है बे! साल-भर जिसके साथ सुख-चैन से रहा, उसी के साथ इतनी बेवफाई!’

अमीर खसरो के सूफी दोहे

रैनी चढ़ी रसूल की सो रंग मौला के हाथ।
जिसके कपरे रंग दिए सो धन धन वाके भाग।।

खुसरो बाजी प्रेम की मैं खेलूँ पी के संग।
जीत गयी तो पिया मोरे हारी पी के संग।।

चकवा चकवी दो जने इन मत मारो कोय।
ये मारे करतार के रैन बिछोया होय।।

खुसरो ऐसी पीत कर जैसे हिन्दू जोय।
पूत पराए कारने जल जल कोयला होय।।

खुसरवा दर इश्क बाजी कम जि हिन्दू जन माबाश।
कज़ बराए मुर्दा मा सोज़द जान-ए-खेस रा।।

उज्जवल बरन अधीन तन एक चित्त दो ध्यान।
देखत में तो साधु है पर निपट पाप की खान।।

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